यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

जब मालूम हो गया कि खजांचो साहब दूर निकल गये होंगे; तो उसने रजिस्टर बन्द किया और चपरासी से बोला- थैली उठाओ; चलकर जमा कर आयें।

चपरासी ने कहा- खजांची बाबू तो चले गये।

रमा ने आँख फाड़कर कहा- खजांची बाबू चले गये ? तुमने मुझसे कहा क्यों नहीं ? अभी कितनी दूर गये होंगे?

चपरासी- सड़क के नुक्कड़ तक पहुँचे होंगे ?

रमा०- यह आमदनी कैसे जमा होगी ?

चपरासी– हुकुम हो तो बुला लाऊँ?

रमा०- अजी जाओ भी, अब तक तो कहा नहीं, अब उन्हें रास्ते से बुलाने जाओगे। हो तुम भी, निरे बछिया के ताऊ। आज ज्यादा छान गये थे? खैर, रुपये इसी दराज में रहेंगे। तुम्हारी जिम्मेदारी रहेगी !

चपरासी- नहीं बाबू साहब, मैं यहाँ रुपये नहीं रखने दूँँगा। सब घड़ी बराबर नहीं जाती। कहीं रुपये उठ जायें, तो मैं बेगुनाह मारा जाऊँ। सुभीते का ताला भी तो नहीं है यहाँ।

रमा०- तो फिर ये रुपये कहाँ रखूँ?

चपरासी- हुज़ूर अपने साथ लेते जायें।

रमा तो यह चाहता ही था। एक एक्का मँगवाया, उस पर रुपयों की थैली रखी और घर चला। सोचता था, कि अगर रतन भभकी में आ गयी, तो क्या पूछना ? कह दूँगा, दो-ही चार दिन की कसर है। रुपये सामने देखकर उसे तसल्ली हो जायेगी।

जालपा ने थैली देखकर पूछा- क्या कागंन न मिला ?

रमा०-अभी तैयार नहीं था। मैंने समझा, रुपया लेता चलूँ जिससे उन्हें तस्कीन हो जाये।

जालपा- क्या कहा सराफ़ ने ? रमा०- कहा क्या, आज-कल करता है। अभी रतनदेवी आयीं नहीं?

जालपा- आती ही होगी, उसे चैन कहाँ ! जब चिराग जले तक रतन न आयी, तो रमा ने समझा, अब न आयेगी।

ग़बन
९९