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सावन के दिन थे। अंधेरा हो चला था। रमा सोच रहा था, रमेश बाबू के पास चलकर दो-चार बाजियाँ खेल पाऊँ मगर बादलों को देख-देख रुक जाता था। इतने में रतन आ पहुँची। वह प्रसन्न न थी। उसकी मुद्रा कठोर हो रही थी। आज वह लड़ने के लिए घर से तैयार होकर आयी है और मुरब्बत और मुलाहिजे की कल्पना को भी कोसों दूर रखना चाहती है।

जालपा ने कहा——तुम खूब आयी। आज मैं भी जरा तुम्हारे साथ घूम आऊँगी। इन्हें काम के बोझ से आजकल सिर उठाने की भी फुर्सत नहीं है।

रतन ने निष्ठुरता से कहा——मुझे आज बहुत जल्द घर लौट जाना है। बाबूजी को कल की याद दिलाने आयी हूँ।

रमा उसका लटका हुआ मुँँह देखकर ही मन में सहम रहा था। किसी तरह उसे प्रसन्न करना चाहता था। बड़ी तत्परता से बोला——जी हाँ, खूब याद है। अभी सराफ की दुकान से चला आ रहा हूँ। रोज सुबह-शाम घंटे भर हाजिरी देता हूँ; मगर इन चीजों में समय बहुत लगता है। दाम तो कारीगरी के हैं। मालियत देखिए तो कुछ नहीं। दो आदमी लगे हुए है। पर शायद अभी एक महीने से कम में चीज तैयार न हो; पर होगी लाजवाब। जी खुश हो जायेगा।

पर रतन जरा भी न पिघली। तिनक कर बोली——अच्छा। अभी महीना भर और लगेगा? ऐसी कारीगरी है कि तीन महीने मे भी पूरी नही हुई। आप उससे कह दीजिएगा, मेरे रुपये वापस कर दे। आशा के कंगन देवियाँ पहनती होंगी, मेरे लिए जरूरत नहीं।

रमा०——एक महीना न लगेगा, मैं जल्दी ही बनवा दूंगा। एक महीना तो मैने अन्दाजन कह दिया था। अब थोड़ी ही कसर रह गयी है। कई दिन तो नगीने तलाश करने में लग गये।

रतन——मुझे कंगन पहनना ही नहीं है भाई। आप मेरे रुपये लौटा दीजिए, बस। सुनार मैंने बहुत देखे हैं। आपकी दया से इस वक्त भी तीन जोड़े कंगन' मेरे पास होंगे, पर ऐसी धांधली कहीं नहीं देखी।

धाँधली के शब्द पर रमा तिलमिला उठा——धांधली नहीं, मेरी हिमाकत कहिये। मुझे क्या जरूरत थी कि अपनी जान संकट में डालता ? मैंने

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