बुलाकर स्वयं दूसरी कथा ६५ पर तलव किए गए। ब्रगेडियर साहब ने हरएक कमान-अफसर से कहा कि वह अपने-अपने सिपाहियों का इरादा और उनके खयालात इस तरह से दरयाफ्त करे कि उनको सेवक बनने को कहा जाय । यदि वे स्वयं प्रार्थना करके सेना में शरीक हों, तो समझना चाहिए कि सरकारी सेवा के लिये तैयार हैं, और यदि ऐसा न करें, तो समझना चाहिए कि राजभक्त नहीं। यही किया गया, और आज्ञानुसार तमाम सिपाही परेड में जमा हो गए, मगर ३८ नं० की रेजिमेंट का एक सिपाही भी अपनी जेगह से तिल बरावर न सरका। हाँ, ७४ नं० की रेजिमेंट के सिपाहियों ने आज्ञा-पालन को, और अपनी-अपनी बदूकें भर ली, तथा नगर की तरफ विद्रोह शांत करने और प्रबंध के लिये चल दिए । फलतः थोड़ी देर में कश्मीरी दरवाजे पर पहुंच गए। समय बीत गया था, इसलिये इनका वहाँ जाना व्यर्थ हुआ, क्योंकि विद्रोही वहाँ से चले गए थे । इसलिये इनसे सिवा इसके कोई लाभ न हुआ कि वह वहां जाकर ठहर गए। अत्र विद्रोहियों का कहीं पता-निशान न था. और न किसी ने बताया कि कहाँ गए । बहुत-से ७४ नं० की रेजिमेट के • सिपाही भी गायब थे। सिर्फ दो कंपनियाँ मेजर पीटर्स के अधीन वहाँ मौजूद थीं। थोड़ी देर बाद अफसरों की लाशें गाड़ी पर लाई गई, जिनके ऊपर उनकी स्त्रियों के गाउन इत्यादि पड़े हुए थे, जिससे इनकी दुर्दशा का पता चलता था।
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