पत्र नं. १२ । (जिसे उपर्युक्त लेखक ने उपर्युक्त महाशय को लिखा था।) देहली-कैंप १६ सितंबर, १८५७ प्रिय वारेंस! मैंने लेडलू कैसल की उँचाई से हल्ला देखा । मैं नहीं कह सकता कि कोई आदमी अधिक समय तक इन कुछ क्षणों की विकलता को सहन कर सकता है। जो दस्ते के सरों के गायब होने और उसके दरार तक पहुँचने के लिये गुजरने आवश्यक हैं। जो गोला-बारी फसीलों से पानी के बुर्जवाले दरार पर चरस रही थी, वह इतनी जबरदस्त थी कि सिर्फ दो सीढ़ियाँ खंदक तक पहुंचने में सफल हो सकीं। मेरे भाई दिन्वी तोपखाने से इस दरार तक जावे-जाते घायल हो गए हैं। गोली इनकी दाईं हंसली से गुजरकर सीने के पार उतर गई है। दूसरे भाई आक्रमण की तमाम जोखिम सहने के बाद भी बच गए। ईश्वर को धन्यवाद है कि वह अब सर्वथा स्वस्थ हैं। कश्मीरी दरवाजे की फसील के सूराख्न तक सीढ़ी लगाकर पहुंचने और दरवाजे को बारूद से उड़ा देने और भीतर घुस जाने की कार्रवाई बहुत सफल रीति से अमल में आई । यह सब ।
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