देखने से प्रतीत होता था कि इन्हें लाठियों से मारा गया है।
मैंने उन्हें वहाँ दफ़न किया, मगर कब्र नाम-मात्र को ही
थी। सिर्फ़ थोड़ा-सा रेत हटाकर लाश रख दी थी, और ऊपर
रेत डाल दिया था। शोक!
रास्ते में मैंने सुना कि कुछ अंगरेज़ आगे जा रहे हैं। मैंने उनसे जा मिलने की कोशिश की, पर पहुँच न सका। विद्रोह से पहले ही मेरी टाँग में दर्द था। अब जो गर्मी और मिट्टी में पैदल चलना पड़ा, तो और ज्यादा हो गया था। बहुधा मुझसे चला नहीं जाता था। मैं पाँव घसीट-घसीटकर रखता था। पर चलना अवश्य था। अगर मौक़ा न होता, तो मैं कभी इतना कष्ट न उठाता, पर जान की रक्षा का विचार इतना बलवान् होता है कि चाहे कैसा ही कढ़ा और कष्टदायक काम हो, मनुष्य उसके वास्ते सब कुछ झेल लेता है।
देहली से जाने के छ दिन बाद मैं कर्नाल पहुँचा। वहाँ मुझे आराम मिला। चूँकि अब जान की चिंता दूर हो गई थी, मुझे कुछ होश आने लगा। मगर इस चिंता से छुटकारा मिला, तो ज्वर ने आ दबाया। सरसाम तक हो गया। पर अब मुझे कुछ आराम है।
१२ मई को एक फ़क़ीर मेरठ में पाया। उसके साथ एक
अँगरेज का बच्चा था, जिसको उसने जमुना से डूबते हुए
निकाला था। मेरठ आने तक इस बच्चे की वजह से ग़रीब
पर कई जगह मार पड़ी, कष्ट भी दिया गया, पर इसने