तेरहवी कथा जेम्स मोर्लो साहब, जिनकी एक हिंदोस्तानी नौकर की मदद और कृपा से जान बची थी, अपने भागने की आश्चर्यमय घटना यो बयान करते हैं- मैं और मेरे मित्र विलियम क्लार्क साहव दोनो कश्मीरी दरवाजे के एक दुमंजिले मकान में रहते थे। हम दोनो का विवाह भी हो गया था, और तीन बच्चे भी थे । क्लार्क साहब के भी एक लड़का था, और इनकी स्त्री गर्भवती थी। ११ मई को सुबह ६ बजे के लगभग मैं दफ्तर जाने को तैयार था कि बाजार में शोर हुआ । मेरे नौकर ने आकर कहा कि कुछ रेजिमेंटें अपने अँगरेजी अफसरों को मारकर मेरठ से यहाँ आ गई हैं। हमारी समझ में कुछ न आया कि अब क्या करना चाहिए । बग्घी भी वापस कर दी। हम दो-तीन घंटे मकान पर और ठहरे रहे कि इतने में एक और नौकर ने आकर कहा कि यहाँ भी विद्रोही अँगरेजों को करल कर रहे हैं। यह सुनकर मेरी स्त्री और बच्चों ने रोना शुरू किया। कुछ नौकर दरवाज़ पर जा खड़े हुए। इनमें से एक ने कहा कि चलो, मेरे मकान में छिप रहो । पर मेरा विचार था कि मैं बाहर जाकर देखू कि क्या हो रहा है। मैं .
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