११८ ग़दर के पत्र यह बात हमारे लिये बहुत ही शोक-प्रद और दुःखद थी, किंतु कोई इलाज न था । लाचार यह तजवीज़ हुई कि रात को यहाँ से चल देना चाहिए । इस बीच में संतोषदायक एक और बात पैदा हुई कि दैव-योग से मेजर पिटरसन साहब पैदल, घायल, लुगी बाँधे आ पहुँचे । मेजर साहब तमाम रास्ते हमारा पता लगाते चले आते थे। यह मुलाकात यद्यपि बहुत धैर्यप्रद थी, पर शोक-पूर्ण भी कम न थी। क्योंकि हम-ऐसे सम्मानित पुरुषों के पास पहनने को कपड़े तक न रहे-हिंदोस्तानी कपड़ों में दिन काट । दिन छिपने के पीछे हम गाँव से निकाले गए, और सड़क का रास्ता छोड़कर दो-तीन गाँव तय किए। इसी चिता ब घबराहट में हम इतना थक गए थे कि अंत में बड़ी अनुनय से एक जमींदार से कहा कि हमको कहीं सुस्ताने दो, और कुछ खाने को ला दो । कल यहाँ से चले जायेंगे। उसने हमारी बड़ी सेवा की । खाना भी खूब लाया । सोने को चारपाइयाँ भी दी। दूसरे दिन सुबह ४ बजे हम वहाँ से चल दिए । एक गाँववाले ने एक चारपाई और कहार मेरे पति के लिये दिए । मेरी जूतियाँ मिस गई थीं । मेजर साहब की जूतियाँ भी लीतरे हो गई थीं। मैं इस दशा में गर्म रेत और काँटों में नंगे पांव चलती थो। अंत में हम थाना कोली के निकट पहुँचे । यहाँ लोगों ने हमारे साथ अत्यंत कृपा और सहानुभूति-पूर्ण व्यवहार किया। एक आदमी ने मेहरबान होकर हमारे वास्ते अत्यंत स्वादिष्ठ कढ़ी पकवाई, और दूसरी
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