सातवीं कया ११३ मेरी बांह पकड़कर कहा, अगर जिंदगी चाहती हो, तो मेरे साथ चलो। और जबरदस्ती एक खिड़की के रास्ते से सदर बाजार ले गया । रास्ते में मैंने बंदूकों की आवाजें सुनीं । पूछने पर मालूम हुश्रा कि सिपाही उन अफसरों को, जो भागकर जाना चाहते हैं, मार रहे हैं। कुछ अफसर मर भी चुके हैं। मेरा साथी भी मुझे कप्तान बडे साहा के बँगले पर ले गया, ओर मुझसे कहा कि यहां और एक मेम है, वह तुम्हारी खबरदारी रखेंगी। पर पीछे मालूम हुआ कि वह भी झंडे- वाले बुर्ज पर चली गई । तब मैंने कहा, मुझे भी वहीं पहुंचा दो। बहुधा सिपाही मुझे देख-देखकर हँसते थे, पर एक ने मुझसे कहा चलो, मैं तुम्हें पहुँचा दूं । उसने अपना वचन पूरा किया। मैं बुर्ज में १० मिनट ही ठहरी हूँगी कि भागने का विचार पक्का हो गया । तमाम सिपाही विद्रोही हो गए थे, और उनमें से कोई अपने अफसर की आज्ञा न मानता था । निदान, जिसके जिधर सींग समाए, चला गया। डॉ० बालफोर साहब ने मुझ पर रहम किया। मुझे अपनी गाड़ी में जगह दी, और जितना शीन हो सका, हम सड़क छोड़कर नहर के किनारे-किनारे भागीं । २५ मील तक भागतो चली गई। २५ मील पर एक मुकाम किया। एक घंटे तक आराम करके फिर बढ़ी, और एक चौकी पर पहुंची, जो उस स्थान से ५ मील पर थी। जितनी रात बाकी रह गई थी, मैदान में काटी। ,
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