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चौथी कथा


मुझसे कुछ-न-कुछ पूछा। चूँकि मैं ज्योतिष आदि भी कुछ- कुछ जानता था, इसलिये जो जिसने पूछा, मैने साफ़-साफ़ जवाब दिया। इस कारण मेरी खूब खातिर होती रही। कोई पैसा देता था, कोई खाना लाता था।

इस गाँव से रवाना होकर एक और गाँव में पहुँचे। वहाँ सेवकदास महंत कबीरपंथी साधु रहता था, उसके पास गए। मैं उसके धर्म को भी जानता था। कुछ किताबें जो मैंने पढ़ीं, तो वह बहुत कृपालु हो गया, और उसके पूछने पर मैंने अपने को कश्मीरी बताया। पर उसने कहा, कश्मीरियों की आँखें भूरी नहीं होती। तुम्हारी भाषा, भेष और रंग-ढंग सब ठीक है, पर तुम्हारी आँखें तुम्हें छिपने नहीं देती, तुम अवश्य अँगरेज़ हो। इस पर मैंने स्वीकार किया। पर चूँकि कबीर की बानी मैंने पढ़ी थी, इसलिये वह मुझसे बहुत दया से पेश आया। मैं यहीं था कि एक सिपाही आया, और कहने लगा कि मेरे पास अंबाले की फ़ौज के वास्ते, जो अभी मुकाम लानी में ठहरी है, कुछ चिट्ठियाँ हैं, मैं ये वहाँ ले जाऊँगा। उसने मुझे नहीं पहचाना कि यह भी फ़िरंगी है। पर मैंने उससे कहा कि मैं डॉक्टर हूँ, और चाहता हूँ कि मेरी चिट्ठी उस फ़ौज के कमान अफ़सर के पास पहुँचा दो। उसने स्वीकार किया, और मैंने चिट्ठी लिखकर दे दी। दिन-भर इसी चिट्ठी की प्रतीक्षा रही। पर जब न उसका जवाब आया, न मदद आई, तो मैंने यही ठीक समझा कि मेरठ चल