गदर के पत्र रात अकेले बीत्तती थी। बहुधा आस-पास गीदड़ आदि चिल्लाया करते थे। जो-जो विपत्तियाँ मैंने भेली हैं, मैं ही जानता हूँ, या परमेश्वर जानता है । पाँच दिन बाद इस बारा से फिर मुझे गांव में ले गए, और वहाँ भूसे की कोठरी में छिपा दिया। मैं इस तंग और अँधेरी कोठरी में २४ घंटे रहा । इसमें जितनी गर्मी थी, और जितना दिल घबराता था, उसका हाल कहना संभव नहीं। मैं नहीं कह सकता, कौन-सी विपत्ति कठिन थी- वारा की या इस भूसे की कोठरी की। इसके बाद एक और समाचार फैला कि फिरंगियों की तलाश के लिये सवार नियत हुए हैं, जो गाँव-गाँव जाकर तलाश करेंगे । अब यह निश्चय किया गया कि मैं एक जोगी- फकीर के साथ इस गांव से कहीं अन्यत्र चला जाऊँ। वह फकीर मेरे पास आया, और बोला-तुम जहाँ कहोगे, वहीं पहुँचा दूंगा, किंतु अब तुम्हारा यहाँ रहना ठीक नहीं। मैं इस समय जोगी के साथ चलकर बरसोहा जा पहुँचा । रात- भर वहाँ ठहरा । इस फनीर ने मेरे तमाम कपड़े वहाँ अपने एक दोस्त के घर जाकर रंगे, और मुझे माला और रुद्राक्ष पहनने को दिया, जिससे जोगी-फकीर और मेरी सूरत में कुछ अंतर न रहे । जव सव भेष ठीक हो गया, तब इस जोगी के साथ मैंने फेरी शुरू की। वह मुझे कई गाँवों में ले गया । कहीं मुझे कश्मीरी, कहीं दादू पंथी और कहीं जोगी- फकीर बताता रहा । जिस गाँव से मैं निकला, वहां के लोगों ने
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