चौथी कथा किया । और, यह कहकर मुझे छोड़ दिया कि यदि हजरत मुहम्मद साहब के नाम पर तू पनाह न माँगता, तो तू भी और काफिरों की तरह न वचता। अब मैं बहुत घबरा रहा था और मुझमें खड़े रहने की भी ताक़त न थी। परंतु चू कि चलना श्रावश्यक था, इसलिये विवश हो मैं आगे बढ़ा । लगभग एक मील और चला हूँगा कि बहुत-से मुमलमान नपार आए, और मुझे देखकर कहने लगे कि यह फिरंगी है, काफिर को मार डालो। और मेरी तरफ देखकर कहने लगे। तुम फिरंगियों ने यह चाहा था कि हम सबको वेदोन कर दें, यह कहकर मुझे खीचकर एक गाँव में ले गए, जो एक मील से कुछ ज्यादा अंतर पर था, और मेरे हाथ पीठ से बाँध दिए। इसके बाद उनमें से एक आदमी ने कहा कि करीमबख्श, जाओ, अपनी तलवार ले आओ। हम इस काफिर का सिर काटेंगे। करीमबख्श गया, और जब तक तलवार लावे, गांव से एक आवाज आई कि गड़बड़ है गड़बड़। यह सुन- कर जितने मुसलमान मेरे पास थे सब अपनी-अपनी फिक्र में लगे । अवसर देखकर मैं खसका और अंधाधुंध भागा। इस तरह इन आततायियों से प्राण बचे। सड़क पर आकर मैं कर्नाल की ओर भागा, पर रास्ते में फिर मुझे कुछ लुहार, जो देहली के मेगज़ीन में नौकर थे, मिल गए, और मुझे घेर लिया। इनमें से एक ने मुझे पहचान लिया, और कहा, साहव, डरो मत, मेरे साथ गांव में चलो, वहाँ मैं आपके खाने-पीने की फिक ,
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