बाँदी अत्यन्त सुन्दरी और कमसिन थी। उसके सौंदर्य में एक गहरे विषाद की रेखा और नेत्रों में नैराश्य की स्याही थी। उसे पास बैठने का हुक्म देकर सलीमा ने कहा––"साक़ी, तुझे बीन अच्छी लगती है या बाँसुरी?"
बाँदी ने नम्रता से कहा––"हुजूर जिसमें खुश हों।"
सलीमा ने कहा––"तू किस में खुश है?"
बाँदी ने कम्पित स्वर में कहा––"सरकार! बाँदियों की खुशी ही क्या?"
क्षण भर सलीमा ने बाँदी के मुँह की तरफ़ देखा––वैसा ही विषाद, निराशा और व्याकुलता का मिश्रण हो रहा था!
सलीमा ने कहा––मैं क्या तुझे बाँदी की नज़र से देखती हूँ?"
"नहीं, हज़रत की तो लौंडी पर खास मेहरबानी है।"
"तब तू इतनी उदास झिझकी हुई और एकान्त में क्यों रहती है? जब से तू नौकर हुई है, ऐसी ही देखती हूँ! अपनी तकलीफ़ मुझ से तो कह प्यारी साक़ी!"
इतना कहकर सलीमा ने उसके पास खिसककर उसका हाथ पकड़ लिया।
बाँदी काँप गई; पर बोली नहीं।
सलीमा ने कहा––“क़समिया! तू अपना दर्द मुझसे कह, तू इतनी उदास क्यों रहती है?"
बाँदी ने कम्पित स्वर से कहा––"हूजूर क्यों इतनी उदास रहती हैं?"