मैंने हाथ बाँधकर ऊपर की ओर सिर उठाया और कहा-
"परमात्मा दया करे।"
"और वह अवश्य करेगा।"
जैसे ढोलक पर हाथ मारने से गूँज उत्पन्न होती है, उसी प्रकार इस वाक्य से मेरे हृदय में गूँज उत्पन्न हुई। यह गूँज कैसी प्यारी थी, कैसी आनन्दायक! इसमें दूर के ढोल का सुहावनापन था, स्वप्न-सङ्गीत का जादू। सोचने लगी-क्या यह सम्मोहिनी निकट पहुँचकर भी ऐसी ही बनी रहेगी, क्या यह जादू जागने के पश्चात् भी स्थिर रहेगा? एकाएक उन्होंने कहा-"कैसी गरमी है। बैठना कठिन हो गया।"
मैंने पंखे की रस्सी पकड़ ली और कहा-"पंखा करूँ?" कमरे में गरमी कोई इतनी अधिक न थी; परन्तु वे बाहर से आये थे, इस लिए उनका दम घुटने लगा। क्रोध से बोले- "पंखा-कुली कहाँ गया। मैं मार-मार कर उसका दम निकाल दूँगा।"
"चलो, जाने दो, बेचारा सारा दिन पंखा खींचता रहता है। थककर जरा बाहर चला गया होगा। खिड़को क्यों न खोल दूँ, सूरज भी घबरा रहा है।"
यह सुनकर वह उछल पड़े, जैसे किसो गठ कतरे ने उनको जेब में हाथ डाल दिया हो, बोले-"क्या कहती हो, खिड़की खोल दूँ। तुम्हें मालूम नहीं कि डाक्टर ने कितना सावधान रहने को कहा है।"
"परन्तु अब तो सायंकाल हो चुका है। कितने बजे होंगे?"
"साढ़े छः बज चुके हैं।"