सीख कर आया है। थोड़े ही समय में उनकी नाम की दूर-दूर तक धूम मच गई है। आज उनसे भेंट हुई। बड़े प्रेम से मिले और बलात् खींचकर अपने मकान पर ले गये। वहाँ बात-चीत में तुम्हारा जिक्र आ गया। बोले-"यदि जन्मान्ध नहीं, तो मैं एक महीने में ठीक कर दूंगा।"
मैं कुछ देर चुप रही और बोली-"रहने दो, मैं अच्छी होकर क्या करूंगी।"
"नहीं, अब मैं अपनी ओर से पूरा-पूरा प्रयत्न करूँगा।"
"मुझे डर है कि मैं-"
"यदि आँखें खुल गई, तो प्रसन्न हो जाओगी।"
"और यदि प्रयत्न निष्फल गया तो फिर?"
"भगवान का नाम लो। उसी के हाथ में सबकी लाज है। इस समय सौ से अधिक अन्धों का इलाज कर चुका है; परन्तु एक के सिवा सब उसके गुण गा रहे हैं।"
मैंने धड़कते हुए दिल की धड़कन दबाकर कहा-"ऐसा योग्य है?"
"योग्य क्या इस युग का धन्वन्तरि है।"
"तो तुम्हें आशा है, मैं देखने लगूँगी?"
"आशा की क्या बात है। मुझे तो पूरा विश्वास है, कि अब मेरा भाग्य पलटने में देर नहीं।"
मैंने बेटे को हृदय से लगा लिया, और रोने लगी। हृदय में विचार-तरङ्ग उठने लगीं। अब वहाँ निराशा की शान्ति नहीं रही