नहीं हुआ था। उनके प्रेम ने दैवी त्रुटि पूरी कर दी। वह मेरी अन्धकारमय सृष्टि के प्रदीप थे, उनकी बात-चीत मेरे नीरस जीवन का सरस सङ्गीत। मैं चाहती थी, वे मेरे पास से कहीं उठकर न जायँ। मैं उनके एक-एक पल, एक-एक क्षण पर अधिकार जमाना चाहती थी। जब कभी वे आने में थोड़ी-सी भी देर कर देते, तब मेरा दम घुटने लगता था, मानो कमरे से हवा निकाल दी गई हो। यह व्याकुलता कैसी जीवन-मय है, कैसी प्रेमपूर्ण? इसे साधारण लोग न समझेंगे। इसको केवल वही जान सकते हैं, जिनके हृदय को प्रेम के अन्धे देवता भगवान् कामदेव ने पुष्पों के वाण मार-मारकर घायल कर दिया हैं।
इसी प्रकार पाँच वर्ष का समय, जिसे बेपरवाई और सुख के जीवन ने बहुत छोटा बना दिया था, बीत गया, और मैं एक बच्चे की माँ बन गई। मेरे आनन्द का ठिकाना न था। यह बच्चा मेरी और उनकी परस्पर-प्रीति की जीवित-जाग्रत मूर्त्ति था, जिस पर हम दोनों जी-जान से निछावर थे। यह बच्चा—मैंने सुना-बहुत सुन्दर था। मेरी सखियाँ कहती थीं, तुम रजनी-रात्रि—हो, तुम्हारा बेटा सूरज है। इसका रूप मन को मोह लेता है। जो देखता है, प्रसन्न हो जाता है। मैं यह सुनकर फूली न समाती। हृदय में हर्ष की तरंगे उठने लगतीं, जिस तरह किसी ने बाजे पर हाथ रख दिया हो। फिर पूछती—इसकी आँखें कैसी हैं। वे उत्तर देती—बड़ी-बड़ी। हिरन का बच्चा मालूम होता है परमेश्वर ने माँ की कसर बच्चे की आँखों में निकाल दी है।