(४)
यह मेरे जीवन का दूसरा परिच्छेद था। इस समय तक मैं शब्द-संसार में बसती थी, अब प्रेम-पथ में पाँव धरे। वे मुझे चाहते थे। मेरे बिना रह न सकते थे। मेरी पूजा करते थे। प्रायः मेरा हाथ अपने हाथ में ले लेते और मेरी प्रशंसा के पुल बाँध देते थे। कहते—मैंने सैकड़ों युवतियाँ देखी हैं; परन्तु तुम-सरीखी सुन्दरी आज तक न देखी है, न देखने की सम्भावना है। मैं पहले-पहल ये बातें सुनकर अपना मुँह हाथों से छिपा लेती थी। परन्तु धीरे-धीरे यह झिझक दूर हो गई, जैसे प्रत्येक विवाहिता रमणी के लिए इस प्रकार की ठकुर-सुहातियाँ सुनना एक साधारण बात हो जाती है। वे मेरे लिए दर्पण का काम देते थे। मैं अपनी आँखों से नहीं, बरन अपने कानों से उनकी बातों में, अपनी प्रशंसा में, अपना रूप-रंग देखकर गर्व से झूमने लग जाती, और समझती कि मुझ-सी सौभाग्यवती स्त्रियाँ संसार में अधिक न होंगी। इस सौभाग्य ने मेरी कई सिखयाँ बना दीं। मेरा आँगन हास-विलास से गूँजता रहता था; परन्तु इस हास-विलास के अन्दर, इस मधुर-सङ्गीत के नीचे, कभी-कभी व्याकुलता का अनुभव होने लगता था, जैसे बिल्ली के गुदगुदे पैरों में तीक्ष्ण नख छिपे रहते हैं। मैंने अपनी एक-एक सखी से उसके जीवन के गुप्त रहस्य पूछे, और तब मैंने यह तत्त्व समझा कि संसार में प्रत्येक वस्तु वह नहीं, जो (दिखाई नहीं प्रत्युत) सुनाई देती है। न संसार में वह अभागा है जिसे प्रायः अभागा समझा जाता है।