थी। सदैव उदास रहते थे। मुझे अपने दुर्भाग्य का पहली बार अनुभव हुआ। इससे पहले मुझे यह कल्पना तक न थी, कि विधाता ने मेरी आँख़ें छीनकर मुझपर कोई अत्याचार किया है। मैं अपनी अँधेरी दुनिया में प्रसन्न थी; परन्तु अब सोचती थी,क्या जो परमात्मा अन्धा कर सकता है, वह यह नहीं कर सकता कि अन्धे कभी जवान न हों, उनका शरीर कभी बढ़े-फूले। यदि यह हो जाय, तो अन्धे अपने जीवन की भयानकतर विपत्तियों से बच जायँ और उन्हें अपने दुर्भाग्य पर दुःख और क्रोध प्रकट करने की आवश्यकता कभी प्रतीत न हो। मैंने अपने कमरे के दरवाजे बन्द करके, यह प्रार्थना, पता नहीं कितनी बार की; परन्तु उसे परमात्मा ने कभी स्वीकार न किया। यहाँ तक कि मैं परमात्मा और परमात्मा की दया दोनों से निराश हो गई और मुझे विश्वास हो गया कि परमात्मा नहीं है, और यदि है, तो अत्याचारी, बेपरवा और निठुर है; परन्तु अब यह विचार बदल गये हैं।
मैं सुन्दरी थी। मेरा मुख, मेरा रङ्ग, मेरा आकार—सब मन को मोह लेनेवाला था। यह मेरा नहीं, मेरी सहेलियों का विचार था। मैं केवल यह जानती थी कि मेरे स्वर में मिठास है। मैं अन्धी हूँ, अपनी तारीफ़ अपने मुख से करना अच्छा नहीं लगता, परन्तु अपना स्वर सुनकर मैं कभी-कभी स्वयं झूमने लग जाती थी। सुना है, हरिण अपनी कस्तूरी की सुगन्ध में प्रमत्त होकर उसे ढूँढ़ता-फिरता है। मैं भी अपने स्वर की सुन्दरता पर, यदि