भावों को शब्द से ही पहचान लेती हूँ। मैं अन्धी हूँ—मेरे कान ही मेरी आँखें हैं।
(२)
मैं पंजाबिन हूँ, परन्तु मेरा नाम बंगालिनों का-सा है। मैंने अपने सिवा किसी दूसरी पंजाबिन लड़की का नाम रजनी नहीं सुना। मेरे पिता उपन्यासों के बहुत शौक़ीन हैं। सुना है, दिन-रात पढ़ते रहते हैं। उन्होंने बंगला का उपन्यास 'रजनी' पढ़ा और फिर मुझे भी रजनी के नाम से पुकारने लगे। इसके पश्चात् मेरा नाम यही प्रसिद्ध हो गया। वे धनवान हैं। उन्हें रुपये-पैसे की कमी नहीं; परन्तु मेरी ओर से प्रायः चिन्तित रहते हैं। मैं भागवान् के घर में आई; परन्तु अभागिन बनकर। मेरे माता-पिता मुझे देखते ही ठण्डी साँस भरकर चुप हो जाते और देर तक बैठे रहते। मैं जान लेती थी कि इस समय मेरे संसार का अन्धकार उनके हृदय के अन्दर समा गया है और उनकी आँखों के आँसू उनके गलों पर बह रहे हैं। मैं उनका दुःख दूर करना चाहती थी; परन्तु मेरे किये कुछ होता न था और मेरी बेबसी मेरे अंधे मुख पर गरमी और लाली के रूप में प्रगट हो जाती थी।
मैं जवान हुई, तो मेरे माता-पिता की चिंता बढ़ने लगी। पहले-पहल तो मुझे उनकी चिंता का कारण मालूम न था; परन्तु थोड़े ही दिनों में सब कुछ समझ गई। वह मेरे ब्याह के लिये चिन्तित थे, सोचते थे—इस अन्धी लड़की से कौन ब्याह करने को तैयार होगा। यह चिन्ता उन्हें अन्दर-ही-अन्दर खाये जाती