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अनाथ-बालिका


बातें भी जारी थीं। खाना भी जारी था। सरला का परोसना भी जारी था। रामसुन्दर यद्यपि बातों में योग दे रहा था; पर उसका ध्यान सरला ही की ओर था। वह बार-बार उसी को देखता था। उसकी इस हरकत से सतीश को थोड़ी-सी भीतर जलन पैदा हुई। मानिनी सरला ने भी मन में कुछ बुरा माना। भोजन साङ्ग हुआ। रामसुन्दर और सतीश ने एक कण्ठ से कहा-"तीन महीने में आज ही तृप्त होकर भोजन किया है।"

चलते समय रामसुन्दर ने मुड़कर एक बार फिर सरला को देखा। अब की बार तो सतीश जल ही गया। दोनों मित्र बाहर आये। सतीश को गुस्सा आ ही रहा था कि रामसुन्दर को इस बेहूदा हरकत पर उसको लानत-मलामत दे कि इतने ही में उसने पृछा-

"भाई, यह लड़की कौन है? जब मैं पहले तुम्हारे यहाँ आया था, तब तो यहाँ यह न थी।"

मानों सतीश की प्रदीप्त क्रोधाग्नि पर मिट्टी का तेल पड़ा। उसने बड़ी घृणा के साथ कहा-

रामसुन्दर, तुम बड़े नीच हो। जब तक खाते रहे, तब तक उसकी ओर घूरते रहे। जब खाकर बाहर आये, तब फिर- फिरकर उसकी ओर देखा किये। अब तुम्हारी नीचता इतनी बढ़ गई कि मुझसे भी उसी प्रकार के प्रश्न करने लगे। मुझे तुम्हारी नैतिक अवस्था पर बड़ा दुःख है।'