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उमा

थे—कैसी घोर नीचता है! कैसी अक्षम्य कायरता! प्रेमिका के पत्र को जिसका मूल्य प्राणों से अधिक होना चाहिए, प्राण-रक्षा का यन्त्र बनाना—इससे घृणित कौन-सी कायरता हो सकती है। यदि प्राण देकर भी रतन को पत्र बापस मिल सकता तो उन्हें उसे लेने में तनिक भी संकोच न होता; किन्तु यह वैसा ही कठिन था, जैसे मुख से निकली हुई बात या कमान से निकले हुए तीर का वापस लौटना!

(९)

उमा खेद और दुख की मूर्ति बनी हुई बैठी थी—खेद इस आकस्मिक घटना पर था; दुःख भण्डा फूट जाने का। बिहारी ने कमरे में प्रवेश किया। उसके मुख पर वह गाम्भीर्य था, जो क्रोध और घृणा की अन्तिम सीमा है। बिहारी ने उमा के सामने उसका प्रेम-पत्र फेंक दिया; किन्तु मुख से कुछ न कह सके। उमा पर वज्रपात-सा हुआ। उसके लिए वह पत्र वैसा ही था, जैसे अभियुक्त के लिए अदालत का फैसला। उमा हत-बुद्धि-सी मूर्तिवत् बैठी रही।

उमा की खामोशी ने बिहारी की जवान खोल दी—उमा,मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। मुझे स्वन में भी यह आशङ्का न थी कि तुम इतना नीचे गिर जाओगी। ऐसा छिछोरापन! मेरे विश्वास का यों मटियामेट!

उमा अब अधिक न सुन सकी। अपराधी मनुष्य साधु-चरित्र आदमी की कड़ी-से-कड़ी बात सुन सकता है; किन्तु उस मनुष्य