रतन अपराधी बालक के सदृश ठिठककर रह गये।
बिहारी ने घृणा-मिश्रित क्रोध से कहा—रतन, क्या दोस्ती और मुरौवत-का बदला यहीं रह गया है? किसी दुश्मन के गले पर छुरी चलाते, तो मरदानगी होती, यह क्या कि दोस्त ही का गला काटो।
रतन कोई उत्तर न दे सके। बिहारी का क्रोध दुगना हो गया,नेत्रों से ज्वाला निकलने लगी।
'बोलो, क्या जवाब देते हो? बोलो, नहीं तो इसी पिस्तौल से अपना और तुम्हारा दोनों का भेजा उड़ा दूंगा।'—बिहारी ने पतलून की जेब से एक रिवाल्वर निकाल लिया।
रतन का हृदय भय से काँप उठा। बचने का कोई मार्ग दिखाई न दिया। सहसा उन्हें एक उपाय सूझा। उन्होंने जेब से एक कागज़ निकाला। यह उमा का पत्र था। रतन ने बिहारी को पत्र देकर कहा—बिहारी, इसमें मेरा ही क़सूर नहीं। यह ख़त इस बात का सबूत है।
बिहारी ने पत्र को ले लिया और दिया सलाई जलाकर उसके प्रकाश में पढ़ा। बिहारी का विचार था कि सारा अपराध रतन का है; लेकिन पत्र से बात कुछ और हुई। बिहारी पत्र लिये हुए बाग़ से बाहर चले गये।
रतन वहीं मूर्त्तिवत् खड़े रह गये। आवेश में आकर उन्होंने पत्र दे तो दिया; परन्तु क्षण-भर में अपनी भूल ज्ञात हो गई, उनका हृदय खेद और ग्लानि से भर गया। लज्जा से कटे जाते