एक-मात्र कारण था धनाभाव। पैतृक सम्पत्ति का विशेषांश रड़्गरेलियों में पड़ चुका था, जो शेष था, उस पर महाजनों के दाँत लगे हुए थे। ऐसी शोचनीय दशा में सिवा आत्म-शुद्धि के, उद्धार का क्या उपाय था? सुधार बिना किसी दूसरे की मदद के आसान काम नहीं। निर्धन की दृष्टि घनवान् पर ही पड़ती है। हम आत्मिक प्रेरणा अथवा आर्थिक सहायता के निमित्त अपने से अच्छी दशावाले का ही मुँह ताकते है—यह मानव-स्वभाव है। बिहारी की उमा पर नज़र पड़ी। वह मालदार थी—उसके पास दौलत का खजाना भी था और रूप का भी। उसका धन उन्हें महाजनों के पञ्जों से मुक्त कर सकता था और उसका सौन्दर्य रूप के बाज़ार के फन्दों से। बिहारी ने प्रेम का स्वाँग भरा, जाल फैलाया—वह फंस गई; लेकिन खज़ाना हाथ लगते ही बिहारी का मन भी बदल गया, जैसे बोतल सामने देखते ही तौबा किये हुए शराबी की तबीयत बदल जाती है। सुधार की प्रेरक आन्तरिक ग्लानि न थी, धनाभाव था। सौन्दर्य का बाज़ार फिर अपनी ओर खींचने लगा।
आकर्षण में स्थिरता नहीं होती। किसी वस्तु का आकर्षण उसकी नवीनता होती है। निरन्तर का सहयोग आकर्षण का घातक है। बालक को अपना खिलौना तभी तक प्रिय होता है,जब तक वह नया रहता है। बिहारी पर उमा के सौन्दर्य का प्रभाव अधिक समय तक न रह सका। उसमें वे बातें कहाँ, जो बाजारू औरतों में होती हैं—न वह हाव-भाव, न वह कटाक्ष, न वे