प्रस्ताव करते, तो उमा उन्हें रोकने का भरसक प्रयत्न करती; किन्तु अब बिना कुछ कहे-सुने सहमत हो जाती। यदि वे आर्थिक सहायता माँगते, तो बिना आना-कानी किये दे देती। पहले उसे उनकी अनुपस्थिति से दुःख होता था, अब उनकी उपस्थिति से!
रतन और उमा का सम्बन्ध अब उस दरजे को पहुँच चुका था, जब उसे केवल पारस्परिक सहानुभूति कहना सत्य नहीं। एक को दूसरे की संगति अत्यन्त आवश्यक हो गई थी, बिछुड़ना खल जाता। रतन यदि किसी दिन न आते, या आने में देर करते, तो उमा व्याकुल हो जाती, शङ्कायें घेरने लगतीं। बार-बार नौकर भेजती और बुलाती। दोनों कभी घूमने निकल जाते, कभी बाइस्कोप देखने जाते, और कभी घर ही पर आनन्दोत्सव मनाते।
इसी प्रकार धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। उमा का सौन्दर्य दिनो दिन निखरता जाता था, शरीर से आभा फूटी पड़ती थी, होठों पर हर्ष का माधुर्य था, नेत्रों में यौवन का मद। उसकी दशा उस कोमल पुष्प के समान थी, जो बाल सूर्य की प्राणपोषक रश्मियों और वसन्ती समीर के मधुर स्पर्श से अधिक कोमल, अधिक प्रफुल्ल, और अधिक सुरभित हो जाता है। रतन इस पुष्प पर भौंरे की भाँति रीझे हुए थे।
(४)
बिहारी ने जब उमा के साथ विवाह करने का इरादा किया था, तब केवल आर्थिक लाभ का ही विचार न था। उन दिनों उन्हें सुधार की धुन सवार थी। इस अस्वाभाविक काया-पलट का