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उमा

मेहनत के बाद मैंने और बिहारी ने एक-एक हार तैयार किया और तुम्हें देना चाहा। तुमने बिहारी का ले लिया, मेरा नहीं स्वीकार किया।"

"रतन, वे पुरानी बातें भूल जाओ। मैं स्वयं नहीं जानती कि मैंने ऐसा क्यों किया। वह लड़कपन का ज़माना था, उस समय मुझमें अच्छे-बुरे की पहचान नहीं थी।"

इसी समय पास के घण्टाघर ने नौ बजने की सूचना दी, रतन ने कहा—अच्छा अब मैं जाता हूँ।

"फिर आओगे? अवकाश मिल जायगा?"

"अब अधिक लज्जित न करो। जब बुला भेजोगी, चला आऊँगा।"

"वादा करते हो?"

"हाँ"

रतन जब बाहर आये, उन्हें ऐसा मालूम होता था, माना आकाश में उड़े जा रहे हैं। अनुकूल जल-वायु पाकर प्रेम का सूखता हुआ पौधा फिर लहलहा उठा!

कर्तव्य पूरा हो गया, उमा के हृदय का बोझ हट गया। उमा की दशा उस दरिद्र सफेदपोश की-सी थी जो अपनी दरिद्रता का ज्ञान विस्मृत करने के निमित्त मदिरा का सेवन करने लगता है। उमा लौट कर ड्राइंग-रूम में आई और पढ़ने में मग्न हो गई।

ग्यारह बजे के समय बिहारी घर लौटे। बिहारी ने पूछा—कोई