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गल्प-समुच्चय

पश्चात्ताप में उदारता होती है। उदारता में आलोचना-शक्ति नहीं होती। उदारता नदी की बाढ़ है, जो हर चीज़ हृदय में छिपा लेती है। उदारता के आवेग में हम दूसरों में उन गुणों का अनुमान करने लगते हैं, जिनके विद्यमान होने, या न होने का हमें निश्चय नहीं होता। उमा को रतन अब देव तुल्य दिखाई देते थे। वह सोचती—कैसा आदर्श जीवन है, कैसा मनोविराग! कैसी सहिष्णुता है, कैसा त्याग! मैंने उनके साथ कैसा अन्याय किया; लेकिन उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। कोई और होता, तो यों ठण्डे दिल से न सह लेता। बहुत दिनों से नहीं आये। कहीं बीमार तो नहीं पड़ गये। जाने क्या बात हैं? पिछली बार जब आये थे, बड़े उदास दिखाई देते थे। मैं इसका कारण जाननी हूँ। मैं ही इस उदासी का कारण हूँ, मैं ही इसे दूर करूंगी। इस निश्चय के बाद उमा ने रतन को एक पत्र लिखा और उन्हें डिनर के लिए निमन्त्रित किया।

सायङ्काल का समय था। रतन घूमने जाने के लिए तैयार हो रहे थे। इसी समय उन्हें उमा का पत्र मिला। उनके अश्चर्य की सीमा न रही। अपने मनमें कहा—यह नई बात कैसी? उमा ने पहले तो कभी ऐसा उदारता नहीं दिखाई थी। उस समय भी जब वह स्वतन्त्र थी और रतन उपके प्रेम में दीवाने बने फिरते थे, उसने कभी ऐसा शब्द भी मुख से न निकाला था, जिससे रतन के नैराश्यपूर्ण हृदय में आशा अंकुरित होती। फिर इस आकस्मिक कायापलट से रतन को आश्चर्य क्यों न होता? उसने