सूरदास प्रभु वे अति खोटे, वह उनहू ते अति ही खोटी।
तुम जानत राधा है छोटी।'
सत्येन्द्र भी इस बार मुस्करा दिये।
सती का सहज-सुन्दर स्नेह सुर-सरिता की स्वच्छ धारा से भी अधिक विमल, शीतल एवं पवित्र है।
(७)
सुशीला की विमल आमोद-लहरी के शीतल प्रवाह ने सत्येन्द्र के हृदय की वेदना एवं ग्लानि को अधिकांश में प्रशमित कर दिया था; पर अब भी कभी-कभी उनकी भस्म में से एकाध स्फुलिङ्ग चमक उठती है। उसे भी शान्ति करने के लिए सत्येन्द्र सुशीला के समेत दुर्गापूजा की छुट्टी में उनके मायके को गये। बड़े आदर-सत्कार से गुणसुन्दरी तथा उसके माता-पिता और भाई ने उनका स्वागत किया। गुणसुन्दरी शिशु को पाकर हर्ष से खिल उठी।
उसके दूसरे दिन की बात है। प्रभात-काल का मनोरम प्रकाश धीरे-धीरे फैल रहा था—रजनी का अन्धकार क्रमशः पुष्पाभरण-भूषिता उषा देवी के पद-नख को आभा में विलीन होता जा रहा था। गुणसुन्दरी उस समय घर से सटे हुए बाग में पूजा के लिये फूल चुन रही थी। इसी समय, इसी भाव में, इसी दशा में, एक दिन और सत्येन्द्र ने गुणसुन्दरी को देखा था। सत्येन्द्र ने पीछे से बड़े मृदुल स्वर में पुकारा—गुणसुन्दरी!
गुणसुन्दरी ने भी उसी प्रकार चकित भाव से पीछे मुड़कर देखा और कहा—जीजाजी! कहिये चित्त तो प्रसन्न है?