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गल्प-समुच्चय

लगभग २० मिनट के उपरान्त सुशीला ने अपने नव-जात शिशु को गोद में लिये प्रवेश किया। आते ही उसने शिशु को सत्येन्द्र की गोद में दिया और आप पास ही पड़ी हुई कुर्सी पर बैठ गई। सत्येन्द्र ने शिशु को गोद में ले तो लिया; पर उनके मुख पर नित्य की-सी प्रफुल्लिता नहीं दिखाई दी। उनके हृदय में ग्लानि, पश्चात्ताप और वेदना की भीषण अग्नित्रयी धाँय-धाँय करके जल रही थी और उसकी व्यथा के लक्षण उनके शुष्क मुख-कमल पर सुस्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहे थे। सुशीला के स्नेहमय सरस लोचनों से यह भाव छिपा नहीं रह सका और उसने बड़े आकुल भाव से सत्येन्द्र का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा—नाथ! आज आप इतने व्यथित क्यों है?

सत्येन्द्र—प्यारी मैंने एक घोर पाप किया है और उसीकी वेदना से मेरा हृदय जल रहा है।

सुशीला—पाप! आप और पाप? असम्भव! मैं इस बात पर विश्वास करने को प्रस्तुत नहीं हूँ।

सत्येन्द्र—तुम सरल एवं एकान्त पवित्र हो; इसीलिये तुम ऐसा समझती हो। मैंने तुम्हारे प्रति विश्वासघात किया है और मैं तुम्हारी क्षमा का भिखारी हूँ।

सुशीलायह उल्टी बात कैसे देव? प्रभु होकर दासी से क्षमा-याचना? मुझे आपको क्षमा करने का क्या अधिकार है? मेरे प्रति यदि आप कोई अपराध भी करें, तो भी वह पाप नहीं, आपका अधिकार है।