ही उनके हाथ में एक बन्द लिफ़ाफ़ा दे दिया। वह बिना कुछ कहे-सुने चली गई—सत्येन्द्र ने भी उससे कुछ नहीं पूछा।
सत्येन्द्र ने काँपते हुए हाथों से पत्र खोला। बड़े उत्सुक भाव से वे उसे पढ़ने लगे। पत्र की प्रतिलिपि इस भाँति है—
'पूज्य जीजाजी—श्री चरणों में प्रणाम!
न माना आपने। पत्र लिख ही तो डाला। ज्यों ही इसी नौकरानी ने मुझे आपका पत्र दिया,त्योंही क्रोध, क्षोभ एवं ग्लानि से मेरी बुरी दशा हो गई। पत्र खोलने से पहले ही मैंने भाई हेमचन्द्र को, मुझे बुला ले जाने के लिये पत्र लिख दिया।
एक बार मेरे मन में आया कि मैं आपका पत्र बिना खोले ही सुशीला बदन को दे दूं और इस प्रकार मैं दाम्पत्य-दण्ड-विधि के अनुसार आपको गार्हस्थ-न्यायालय से विश्वास-घात का समुचित दण्ड दिलाऊँ; पर मेरी आत्मा ने मुझे ऐसा करने की आज्ञा नहीं दी। मैंने सोचा कि सम्भव है, इसके कारण आप में और मेरी बहन में मन-मुटाव हो जाय और उसका दुःखमय परिणाम उस निर्दोष सरल बहन को भुगतना पड़े; पर मुझे दु:ख है कि आप पण्डित, विद्वान् एवं आचार्य होकर भी इस घृणित कृत्य की ओर प्रवृत्त होने में कण-मात्र भी कुण्ठित एवं लज्जित न हुए। छिः!
कदाचित् आपने यह सोचा होगा, कि एक तो वह मेरी साली है और उस पर भी है—बाल-विधवा। उसे भ्रष्ट करने का मेरा अधिकार है और उसमें सफल होना भी बड़ा सरल है; पर आपने इतने बड़े विद्वान होकर भी यह नहीं सोचा कि संसार-भर की