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मुस्कान

थी। वे रोक नहीं सकते थे—उनके देखते-देखते ही उनकी हृहय-रत्न-राशि को दूसरा लिये जा रहा था। सत्येन्द्र बड़े आकुल हो गये; पर उपायान्तर था ही नहीं—क्या करते?

दूसरे दिन ५ बजे सायंकाल की गाड़ी से गुणसुन्दरी का जाना निश्चित हो गया। सुशीला भी क्या करती? उसने भी एकाध बार गुणसुन्दरी को छोड़ जाने के लिये हेमचन्द्र से अनुरोध किया; पर हेमचन्द्र की उक्ति के सन्मुख उसे भी विवश होकर अन्ततः स्वीकृति देनी ही पड़ी।

इन २४ घण्टों के भीतर सत्येन्द्र ने सहस्रों बार यह चेष्टा की कि गुणसुन्दरी से एकान्त में मिलने का अवसर प्राप्त करें; पर वे बार-बार विफल-प्रयास हुए। गुणसुन्दरी उनकी दृष्टि के सम्मुख कई बार पड़ी, कई बार उन्होंने आँखों-आँखों में उससे अपने कमरे में आने के लिए आकुल अनुरोध किया; पर गुणसुन्दरी ने देखकर भी नहीं देखा। उस दिन उसने हेमचन्द्र और सत्येन्द्र को भोजन भी साथ ही साथ कराया। सत्येन्द्र को एकान्त-मिलन का अवसर दिया ही नहीं। अन्त में वह समय आ पहुँचा, जब उनकी प्राण-प्रतिमा उनके घर और हृदय को अन्धकार-मय बनाकर जाने के लिए प्रस्तुत हुई। और चलते समय भी उसका इतना निष्ठुर भाव था कि उसने एक बार भी उनकी ओर आँख उठाकर नहीं देखा। सत्येन्द्र बड़े ही दुखित, आकुल और क्षुभित हो गये। अश्रु-विसर्जन के साथ सुशीला ने गुणसुन्दरी और हेमचन्द्र को विदा किया; गुणसुन्दरी ने चलते समय शिशु का मुख चूमा