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मुस्कान

सत्येन्द्र क्षण-भर के लिए चुप हो गये। फिर बोले—मुख से कहने का साहस नहीं है, मैं लिखकर दूंगा। क्या तुम उसका उत्तर देने की कृपा करोगी?

गुणसुन्दरी ने स्थिर भाव से कहा—जीजाजी! मेरा विश्वास है कि हृदय के जिन भावों को एक दूसरे की समुपस्थिति में मुख की भाषा-द्वारा व्यक्त करने में लज्जा या संकोच मालूम हो, तो उनको लिखकर व्यक्त करना भी अनुचित ही है। उनका हृदय में घुट-घुटकर मरजाना ही मेरी तुच्छ बुद्धि में बहुत अच्छा है।

सत्येन्द्र—ऐसा भी हो सकता है; पर मेरे प्रश्न का क्या उत्तर है?

गुणसुन्दरी—वही, जो मैंने अभी कहा है। वह स्पष्ट है।

इतना कहकर गुणसुन्दरी शीघ्रता-पूर्वक वहाँ से चली गई। सत्येन्द्र और भी उलझन में पड़ गये। गये मुस्कान की परिभाषा करने और रास्ते में दूसरी ही शंका उठ खड़ी हुई।

मानसिक ग्रन्थि का तारतम्य कुछ ऐसा विलक्षण होता है कि उसको जितना ही सुलझाया जाय, वह उतना ही और उलझता जाता है। इसका सबसे उत्तम उपाय है—अग्नि-संस्कार। पर उसका अनुष्टान उतना ही कठिन है, जितनी की सायुज्य मुक्ति की साधना।

(५)

इस घटना को घटित हुए लगभग एक सप्ताह व्यतीत नहीं होने पाया था कि सुशीला के भाई हेमचन्द्रजी गुणसुन्दरी को बुला ले जाने के लिए आ गये। गुणसुन्दरी विधवा हो जाने के