एक बार फँस निकस न पैहै,
जैसे फँस्यो काई कीच। रे मन०
त्यों 'हृदयेश' सुमिर प्रभु-पद को,
छाँड़ि मदन मद नीच। रे मन०
उषा देवी प्राची दिशा में स्थित होकर इस गान को तन्मयी बनी हुई सुन रही थीं, उन मधुर स्वरों के स्पर्श से कोमल कुसुम रोमाञ्चित हो रहे थे। सत्येन्द्र ने प्रभात काल के उस स्निग्ध प्रकाश में देखा, कि गुणसुन्दरी एक हाथ से डाल पकड़े है और एक हाथ से जुही के कोमल फूल तोड़-तोड़कर नीचे रखी हुई टोकरी में डालती जाती है। वह अपने इस कृत्य में तन्मयी होकर आन्तरिक आनन्द के आवेश में गुनगुना रही है। सत्येन्द्र एकटक से इस छवि-माधुरी को देखने लगे। थोड़ी देर तक इस स्वरूप-सुधा को पान करने के उपरान्त सत्येन्द्र ने मन्द मधुर स्वर में पुकारा—गुणसुन्दरी!
गुणसुन्दरी ने चकित हरिणी की भाँति पीछे फिरकर देखा। उसके हाथ से डाल छुट गई। उसने सलज्ज भाव से प्रत्युत्तर दिया—जीजाजी?
सत्येन्द्र—हाँ! क्या फूल तोड़ रही हो?
गुणसुन्दरी—हाँ! पूजन के लिये फूल चुन रही हूँ।
सत्येन्द्र ने हृदय में साहस भरकर कहा—गुणसुन्दरी! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ।
गुणसुन्दरी ने चकित भाव से कहा—कहिये!