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गल्प-समुच्चय

भोजन की थाली टेबुल पर रखकर वह बिना कुछ कहे-सुने शीघ्र ही कमरे से बाहर चली गई।

सत्येन्द्र को उस रात में क्षणभर के लिये भी नींद नहीं आई। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, कि मानो उनके हृदय में, उनकी बुद्धि में, उनकी आँखों में, उनकी विवेक-दृष्टि में, वह मधुर मन्द मुस्कान सजीव स्थिर दामिनी की भाँति प्रवेश कर गई।

यह एकान्त सत्य है, कि रूपवती रमणी की मधुर मन्द मुस्कान बड़े-बड़े ज्ञानी और पण्डितों को भी परम मूर्खों की भांति उद्भ्रान्ति की गम्भीर अन्धकारमयी गुफा में गिरा देती है।

(४)

धीरे-धीरे ब्राह्म-मुहूर्त आ पहुँचा। मन्द-मन्द शीतल समीर प्रवाहित होने लगी। नक्षत्रावली रात्रि-भर के विहार के उपरान्त परिश्रान्त होकर अपने-अपने प्रासाद में प्रवेश करने लगी। सत्येन्द्र भी अपने कमरे से निकलकर गृह-संलग्न उद्यान में जाकर घूमने लगे। उस समय उद्यान में अनेक प्रकार के प्रस्फुटित पुष्पों की सुगन्ध परिव्याप्त हो रही थी और शीतल समीर का संयोग पाक वह इधर-उधर इठलाती फिरती थी। उसके अञ्चल के सुशी- तल स्पर्श से सत्येन्द्र का उत्तम मस्तिष्क कुछ-न-कुछ शान्त हो गया।

वे इधर-उधर गूमने लगे। वे अपनी उद्भ्रान्त विचारमाला में तल्लीन थे। गुणसुन्दरी की उसमधुर मन्द मुस्कान की मूक कविता का अर्थ तथा भाष्य करने में वे ध्यानावस्थित से हो रहे थे। कभी वे सोचते थे, कि वह मुस्कान क्रमशः परिवर्द्धित होनेवाली प्रेम-