लिये कई-कई बार आना ही पड़ता था। सुशीला की निरन्तर अनुपस्थिति से अनुचित लाभ उठाकर सत्येन्द्र की मोहमयी प्रकृति और भी प्रबल वेग से प्रधावमान होने लगी।
आज नवजात-शिशु के शुभ नामकरण-संस्कार का आनन्द-दिन है। दिन-भर गुणसुन्दरी अभ्यागतों की अभ्यर्थना में लगी रही और उसने स्वयं दिन-भर बिना खाये-पीये सबको खिलाया पिलाया। गुणसुन्दरी उस उत्सव में अपने अस्तित्व तक को भूल गई।
रात्रि के लगभग आठ बजे गुणसुन्दरी अपने जीजा सत्येन्द्र के लिये भोजन लेकर उनके कमरे में गई। सत्येन्द्र उस समय कोई साहित्य की पुस्तक पढ़ रहे थे और उसमें वर्णित नायिका के सुन्दर स्वरूप की कल्पना को गुणसुन्दरी में आरोपित करने की धुन में लगे हुए थे। ऐसे ही समय गुणसुन्दरी ने भोजन की थाली लिये हुए उनके कमरे में प्रवेश किया। सत्येन्द्र एकटक गुणसुन्दरी के मुख-चन्द्र की ओर देखने लगे। उस समय सहसा उनके मुख की आकृति कुछ बड़ी विलक्षण-सी हो गई। उनकी आँखें फैल गई; मुख-विवर खुल गया, दन्त-पंक्ति कुछ बाहर निकल आई और उनकी चेष्टा ठीक वैसी ही हो गई, जैसी किसी मूर्ख की उस समय हो जाती है, जब वह अपनी दृष्टि में कोई बड़ी विलक्षण वस्तु देखता है। गुणसुन्दरी को जीजा का यह आश्चर्य-भाव कुछ ऐसी कुतूहलता से भरा हुआ प्रतीत हुआ, कि सहसा उसके स्निग्ध मृदुल अधर पर मन्द मुस्कान आ गई। उसने नीची दृष्टि कर ली