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अनाथ-बालिका


उसमें दो लिफ़ाफे थे। जिस पर नम्बर एक पड़ा था, उसको खोलकर डाक्टर साहब पढ़ने लगे। उसमें लिखा था-

"आप मेरे परम हितैषी हैं। जो ऐसा न होता, तो यह लिफ़ाफा आप न पढ़ते। अब तक यह कब का अग्निदेव के सिपुर्द हो चुका होता। आप मेरी कन्या के संरक्षक हैं। इस कारण मैं आपसे नीचे लिखा वृत्तान्त कहती हूँ! सुनिये-

"मेरे पति दो भाई थे। पति की मृत्यु के बाद मेरे जेठ ने मुझसे अच्छा व्यवहार न किया। उन्होंने एक दिन क्रोध-वश मुझे मकान से निकल जाने तक की आज्ञा दे दी। मेरे पति ने मरते समय बिना विचार किये ही, अपने भाई की आज्ञा का पालन करने का आदेश मुझे दिया था; इसलिए स्वर्ग-गत पतिदेव की आज्ञा का स्मरण करके मुझे अपने जेठ की अत्यन्त अनुचित और अकारण दी हुई आज्ञा को शिरोधार्य करना पड़ा। मैं अपनी एक मात्र कन्या को लेकर घर से निकल चली। ओफ़! कैसी भीषण रात्रि थी। उस समय के दुःख का हाल किसी भले और सम्मान्य घर की स्त्री के मन से ही पूछना चाहिये। मेरे शरीर पर कुछ आभूषण थे। उन्हीं के सहारे मैं कई सौ मील की यात्रा करके यहाँ आई और एक साधारण-सा मकान लेकर रहने लगी। मैंने जीवनभर प्रतिष्ठा के साथ अपना और अपनी प्यारी बेटी का पेट पाला। मैंने 'आन को रक्खा जान गंवा कर' बस मेरा यही रहस्य है। अब यदि आप भेरा पूरा परिचय प्राप्त करना चाहें, तो दूसरे लिफाफे को खोलिए। उसमें आपको मेरे जेठ का लिखा हुआ