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गल्प-समुच्चय


हरिणियों की देह पर धीरे-धीरे हाथ फेरते रहना, कान देकर पक्षियों का गाना सुनना और नदी से कलसी में जल भर-भरकर द्रुमगुल्म-लतादिकों को सींचना—ये ही उसके नित्य के कृत्य थे। जब वह गङ्गा में कलसी भरने जाती, तब मुकुरोज्ज्वल मन्दाकिनी में अपनी परछाई देखकर, अपनी सुन्दरता पर आप ही मुग्ध होकर मुस्कराने लगती थी!

कभी-कभी शून्य स्थान में स्वच्छन्द विहार करनेवाले पक्षियों और भ्रमरों को किलोलें करते देखकर उसके मन में यौवन-मद-जनित एक प्रकार का मनोविकार-सा उदय हो आता था; किन्तु उससे वह प्रभावान्वित नहीं होती थी। एक तो कोमल-कमल-कलिका-सी सुकुमारी, दूसरे त्रिवली-सोपान द्वारा मन्मथ-महेन्द्र का क्रमश: आरोहण और तीसरे एकान्त वसन्त-बेष्टित वन में वास—सब कामोद्दीपक सामग्रियाँ जहाँ अहर्निश आँखों के सामने खेल-खेल कर रिझा रही थीं, वहाँ भला चपला-चंचल तारुण्य से आक्रान्त अबला का निवास कैसा कष्ट-कर था!!! कभी-कभी रुचिर-रश्मि-राशि राकेश के सुधा-सिक्त किरण-कन्यकाओं को पार्श्ववर्तिनी पुष्करिणी के स्फटिकोपम जल-वक्ष-स्थल पर थिरकते हुए देखकर यों ही मुस्करा उठती थी। जब वह कबूतरों को गोद में लेकर प्रेम-पूर्वक चूमने-चाटने लगती थी, तब वे स्निग्ध-कर-स्पर्श-जन्य अद्भुत सुख का अनुभव करते हुए, गोद में सटकर, पुलक-पल्लवित शरीर को फुलाकर, आनन्दोत्फुल्ल अध्र्दोन्मीलित नयनों से, मृगनयना मैना के सुधाधरोपम मुखड़े की ओर देखते हुए,