बड़ा प्रेमी है। इसके पिता का हाल में स्वर्गवास हो गया है और यह बहुत बड़ी सम्पत्ति का मालिक हुआ है। पर, फिर भी, इसने पढ़ना नहीं छोड़ा। सतीश के साथ इसकी बड़ी घनिष्ठता है । सतीश और रामसुन्दर की प्रकृति अनेक अंशों में एक-सी है। इसीलिये इन दोनों में खूब मित्रता है। सतीश और रामसुन्दर छुट्टी के समय प्रायः एक ही साथ रहते हैं।
सतीश और रामसुन्दर एक नाव पर बैठे हुए हैं। नाव पुण्यतोया भागीरथी में धीरे-धीरे वह रही है। ग्रीष्म ऋतु की सन्ध्या है। बड़ा लुभावना दृश्य हैं। तारों का बिम्ब गङ्गाजल में पड़कर अजीब बहार दिखा रहा है। सच तो यह है कि इस "शाम" के सामने “शामे लखनऊ" कुछ भी चीज नहीं। नाववाला बड़े मीठे स्वर में कोई गीत गा रहा है। उसकी आवाज गङ्गा के तट के अट्टालिका-सम ऊँचे स्थानों से टकराकर मानों कई गुनी होकर वापिस आ रही है। ये दोनों मित्र आपस में खूब घुल-घुलकर बातें कर रहे हैं। अन्त में सतीश ने कहा- "मित्र, तुम्हारा हृदय बहुत विशाल है। इस बात को मैं स्वीकार करता हूँ। जहाँ तक मेरी शक्ति है, मैं तुमको इस पुण्यकार्य में सहायता दूँगा। तीन मास बाद कालेज बन्द होगा। उस समय तीन मास से अधिक का अवकाश मिलेगा। उसमें मैं तुम्हारे साथ रहूँगा। जहाँ तुम चलोगे मैं चलूँगा। जहाँ तक पता चलेगा, मैं तुम्हारे मनोरथ के साफल्य के लिये प्रयत्न करूँगा। इस समय इस काम को ईश्वर के ऊपर छोड़ो।