कारी सब के सम्मुख आया। उसे देख रुस्तम के आश्चर्य की सीमा न रही; क्योंकि वह स्वयं सुलतान महमूद था।
भू-पतित शाहज़ादे की ओर देखकर सुलतान बोला—शैतान, विश्वास-घातक! नफर, क्या इसीलिए मैंने तुझ पर इतना विश्वास किया था? मैंने तुझे क्या नहीं दिया? और फिर तूने मेरे ही साथ दग़ा की। महमूदाबाद में मैंने छिपकर तेरी बातें सुन ली थीं। एक सैनिक के वेष में मैं तेरे पीछे-पीछे यहाँ तक आया और यहाँ आज मैंने तुझे इस दग़ाबाज़ी के लिए पूरा पुरस्कार दे दिया।
यह कहकर सुलतान पीछे लौटा; देखा, वहाँ कमलावती और भैरव कोई नहीं हैं, रुस्तम खड़ा है। सुलतान ने पूछा—रुस्तम, ये दोनों कहाँ चले गये?
रुस्तम ने कहा—जहाँ पनाह, मैं कह नहीं सकता, कहाँ गये। मैंने खयाल नहीं किया।
सुलतान—रुस्तम, तुम इस लाश को उठाकर मेरे पीछे-पीछे आओ।—रुस्तम शाह जमाल की लाश उठाकर सुलतान के पोछे-पीछे चला। शिविर में जाने से मालूम हुआ, कि कुमारसिंह भी न जाने कैसे छूटकर निकल गये! सुलतान ने कहा—रुस्तम, इस बार हम दुश्मनों को शिकस्त न कर सके। चलो फिर कभी देखा जायगा।
सुलतान महमूद के लौट जाने पर कुमारसिंह ने कमलावती का पाणिग्रहण किया। कमलावती के पिता की भी यही अन्तिम इच्छा थी। कुमारसिंह उनके बाद गुर्ज्जर के अधीश्वर हुए।
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