तबीअतें खुल गई। फिर तो वे आपस में खूब आलाप करने लगे। सतीश ने सरला से कभी उसका परिचय न पूछा; क्योंकि वह मामाजी की बात को वेद भागवान की बात समझता था। न सरला ने ही अपना प्रकृत परिचय देने की आवश्यकता समझी। इसमें सन्देह नहीं कि सरला की योग्यता, गृहकार्य-कुशलता और उसके पवित्रता-पूर्ण आचरण पर सतीश मन से मुग्ध हो गया। सरला भी सतीश के कामों का बड़ा ध्यान रखती। सतीश प्रायः देखता कि उसके कपड़े तह किये हुए यथा-स्थान रक्खे हैं, वह अपने पढ़ने की पुस्तकें भी-जिनको वह इधर-उधर बिखरी और खुली हुई छोड़ गया था-बन्द की हुई और चुनी हुई पाता। छुट्टियों के अत्यल्प काल में ही सरला ने उसके हृदय में स्थान कर लिया। उसको न-मालूम क्यों हर समय सरला का ध्यान रहने लगा। वह अपने मन से भी इसका कारण कई दफे पूछकर कुछ उत्तर न पा सका था। परन्तु वह जाने या न जाने-और जानने की जरूरत भी नहीं—प्रेमदेव की पवित्र किरणों से उसका हृदयाकाश अवश्य ही आलोकित रहने लगा। वह कभी सरला को पढ़ाता-बीसियों नई-नई बातें
बताता-और कभी घण्टों खाली इधर-उधर की बातें ही करता। मतलब यह कि इन दोनों की मैत्री दिन-पर-दिन मजबूत होने लगी। छुट्टियाँ समाप्त होने पर जब सतीश कालेज को जाने लगा, तब उसे मकान छोड़ने में बड़ा मीठा दर्द-रूप मोह मालूम हुआ; पर वह तत्काल सँभल गया और हमेशा की तरह
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अनाथ-बालिका
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