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कमलावती

जमालखाँ ने एक दीर्घ निःश्वास लेकर कहा—रुस्तम, क्या कहते हो? हम लोग इस सुन्दर देश को नष्ट करेंगे? इस स्वर्ण-भूमि को ध्वंस करेंगे? अग्नि-दाह कर इस नन्दन-कानन को भस्म करेंगे ? क्या खुदा ने इसीलिये इसको इतनी शोभा-सम्पत्ति दी है? क्या हम लोग इस शान्ति-मय देश को शोणित-मय करेंगे? नहीं, नहीं। रुस्तम, ऐसा कभी नहीं होगा। हम ऐसा कदापि नहीं करेंगे।

रुस्तमखाँ घोर हिन्दू-द्वेषी, सुलतान का उपयुक्त सेनापति था। वह यह बात सुन नहीं सका; पर करता क्या? धीरे से बोला—आखिर आपका मन्सूबा क्या है?

जमालखाँ—यह तो हमने पहले ही बतला दिया। रुस्तम,जिस विजय-वासना ने सुलतान के हृदय को पापाण बना दिया है, जिसके कारण उन्होंने भारत को आज ध्वंस कर डाला है,खुदा की पवित्र भूमि में रक्त प्रवाह बहाया है, जिसके कारण भारत आज श्मशान हो गया है, वह दुर्दमनीय वासना हमारे हृदय में नहीं है। मैं अफगानिस्थान के पार्वत्य राज्य से ही सन्तुष्ट हूँ, मुझे यह ऐश्वर्य नहीं चाहिये। मैं सच कहता हूँ, मुझसे इस सौन्दर्य-शालिनी भूमि के सर्वनाश का कार्य नहीं बनेगा।

रुस्तम ने गम्भीर स्वर से कहा—जनाब, आप कहते क्या हैं? आते समय सुलतान ने आपको यह तलवार दी थी, इसे स्पर्श कर आपने सुलतान की आज्ञा-पालन करने की प्रतिज्ञा की थी। क्या आप अपनी तलवार की गौरव-रक्षा नहीं करेंगे?