किया। दो दिन समुद्र में बिताकर तीसरे दिन ये सोमनाथ-बन्दर पहुँच गये।
नाव खड़ी की गई। सब उतरे। रुस्तम ने माँझियों को एक सुवर्ण-मुद्रा दी। वह मुद्रा गुजरात की ही थी, जो पहले से प्राप्त कर ली गई थी। माँझी गण बिदा हुए और ये लोग भी पाषाणखण्डों पर बैठकर बिश्राम करने लगे।
समीप में ही सोमनाथ का मन्दिर था। उसके स्वर्ण-मण्डित शिखर पर चन्द्र-रश्मि के पड़ने के कारण एक अपूर्व शोभा होती थी। वह शोभा अनिर्वचनीय थी।
क्रमशः सन्ध्या बढ़ने लगी। आरती का समय आया। भगवान् सोमनाथ की आरती होने लगी। दमामा और घंटों की ध्वनि मिलकर एक गम्भीर नाद उत्पन्न करती थी। वह नाद समुद्र के भीषण गर्जन से मिलकर आकाश-मंडल को कँपा देता था। आरती हो जाने पर वेद-पाठी ब्राह्मण सुमधुर स्वर से सोमनाथ की स्तुति करने लगे। निशा की निस्तब्धता को भंगकर वह स्वर क्रमशः पवन में फैलने जगा । उस मधुर स्वर से चन्द्रालोक-प्लावित पृथ्वीतल पुलकायमान हो उठा।
शाह जमाल स्थिर दृष्टि से उधर ही देख रहा था। वह न जाने क्या सोचता था!
रुस्तम बोला—हुजूर की क्या मरजी है? चलिये, किसी मुसाफिरख़ाने में चलकर ठहरें। हमें अपनी चिन्ता नहीं है; पर आप को कष्ट न हो। सुलतान ने हमें यही आज्ञा दी है।