आकर अपनी एक-एक कौड़ी चुका ले, अगर कोई यहाँ न आ सका हो, तो आप लोग उससे जाकर कह दीजिये, कलसे एक महीने तक जब जी चाहे आवे और अपना हिसाब चुकता कर ले। गवाही-साखी का काम नहीं।— सब लोग सन्नाटे में आ गये। कोई मार्मिक भाव से सिर हिलाकर बोल—हम कहते न थे? किसी ने अविश्वास से कहा-क्या खाके भरेगा! हजारों का टोटल हो जायगा।
एक ठाकुर ने ठठोली की—और जो लोग सुरधाम चले गये?
महादेव ने उत्तर दिया—उनके घरवाले तो होंगे।
किन्तु इस समय लोगों को वसूली की इतनी इच्छा न थी, जितनी यह जानने की कि इसे इतना धन मिल कहाँ से गया। किसी को महादेव के पास आने का साहस न हुआ। देहात के आदमी थे, गड़े मुर्दे उखाड़ना क्या जानें। फिर प्रायः लोगों को याद भी न था कि उन्हें महादेव से क्या पाना है और ऐसे पवित्र अवसर पर भूल-चूक हो जाने का भय उनका मुँह बन्द किये हुए था। सबसे बड़ी बात यह थी कि महादेव की साधुता ने उन्हें वशीभूत कर लिया था।
अचानक पुरोहितजी बोले—तुम्हें याद है, मैंने तुम्हें एक कंठा बनाने के लिए सोना दिया था और तुमने कई माशे तौल में उड़ा दिये थे।
महादेव—हाँ याद है, आपका कितना नुकसान हुआ होगा? पुरोहित-५०) से कम न होगा।