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आत्माराम


ध्यान आ गया, यह सब चोर हैं। वह जोर से चिल्ला उठा—'चोर चोर, पकड़ो, पकड़ो !' —चोरों ने फिछे फिरकर भी न देखा।

महादेव दीपक के पास गया, तो उसे एक कलशा रखा हुआ मिला। मोरचे से काला हो रहा था । महादेव का हृदय उछलने लगा। उसने कलशे में हाथ डाला तो मोहरें थीं। उसने एक मोहर बाहर निकाली और दीपक के उजाले में देखा—हाँ, मोहर थी। उसने तुरन्त कलशा उठा लिया; दीपक बुझा दिया और पेड़ के नीचे छिपकर बैठ रहा। साहु से चोर बन गया।

उसे फिर शंका हुई, ऐसा न हो चोर लौट आयें और मुझे अकेला देखकर मोहरें छीन लें। उसने कुछ मोहरें कमर में बाँधी, फिर एक सूखी लकड़ी से जमीन की मिट्टी हटाकर कई गड्ढे बनाए, उन्हे मोहरों से भरकर मिट्टी से ढक दिया।

(४)

महादेव के अन्तःनेत्रों के सामने अब एक दूसरा ही जगत् था, चिन्ताओं और कल्पनाओं से परिपूर्ण। यद्यपि अभी कोष के हाथ से निकल जानेका भय था; पर अभिलाषाओं ने अपना काम शुरु कर दिया। एक पक्का मकान बन गया, सराफे की एक भारी दूकान खुल गई, निज सम्बन्धियों से फिर नाता जुड़ गया, विलास की सामग्रियाँ एकत्र हो गई, तब तीर्थयात्रा करने चले और वहाँ से लौटकर बड़े समारोह से यज्ञ-ब्रह्मभोज हुआ। इसके पश्चात् एक शिवालय और कुआँ बन गया, एक उद्यान भी आरो-