लेता था। आज उसने दिन भर कुछ नहीं खाया, रात के भोजन का समय भी निकल गया, पानी की एक बूंँद भी उसके कंठ में न न गई; लेकिन उसे न भूख थी न प्यास। तोते के बिना उसे अपना जीवन निस्सार, शुष्क और सूना जान पड़ता था। वह दिन-रात काम करता था ; इसलिये कि यह उसकी अंत:प्रेरणा थी, जीवन के और काम इसलिये करता था कि आदत थी। इन कामों में उसे अपनी सजीविता का लेशमात्र भी ज्ञान न होता था। तोता ही वह वस्तु था, जो उस चेतना को याद दिलाता था। उसका हाथ से जाना जीव का देहत्याग करना था।
महादेव दिन-भर का भूखा-प्यासा, थका-मांँदा, रहरहकर, झाकियाँ ले लेता था; किन्तु एक क्षण में फिर चौंककर आँख खोल देता और उस विस्तृत अंधकार में उसको आवाज सुनाई देती—'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता ।'
आधीरात गुजर गई थी। सहसा वह कोई आहट पाकर चौका, तो देखा कि दूसरे एक वृक्ष के नीचे एक धुंधला दीपक जल रहा है और कई आदमा बैठे हुए आपस में कुछ बातें कर रहे हैं। वह सब चिलम पी रहे थे। तमाखू की महक ने उसे अधीर कर दिया। उच्च स्वर से बोला—'सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता'और उन आदमियों की ओर चिलम पोने चला; किन्तु जिस प्रकार बन्दूक की आवाज़ सुनते ही हिरन भाग जाते हैं, उसी प्रकार उसे आते देख वह सब-के-सब उठ कर भागे। कोई इधर गया, कोई उधर। महादेव चिल्लाने लगा—ठहरो—ठहरो।' एकाएक उसे