साथ किसी सुयोग्य पति के हृदय की अधिकारिणी रही होगी। रोगिणी की अवस्था ४० वर्ष के ऊपर थी। रोग और ग़रीबी ने मिलकर उसके मुख-कमल को मलिन करने में कोई कसर न
छोड़ी थी ; परन्तु उसके चेहरे पर जिस स्वर्गीय शान्ति का आधिपत्य था, उसे विपत्ति नहीं हटा सकी थी। रोगिणी के शान्ति-पूर्ण चेहरे को देखते ही डाक्टर के हृदय में उसके विषय में बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हो गई। उन्होंने अपने स्वभाव-सिद्ध मीठे स्वर से पूछा--
"माँजी, आपको क्या तकलीफ है? धीरे-धीरे अपनी तबीयत का हाल कह सुनाइए।"
रोगिणी ने कराहते हुए कहा---
"राजा-बाबू तुम दीनबन्धु हो ; इसलिए ईश्वर-वत् पूज्य हो। मैं आपसे लज्जा छोड़ कर कुछ कहना चाहती हूँ। आशा है, इसके लिए तुम मुझको क्षमा करोगे। संसार में मैंने किसी का एहसान नहीं उठाया; पर मरते समय तुम्हारे एहसान के नीच़े मुझे दबना पड़ा। इसलिए ईश्वर तुम्हारा..............."यह कहते-कहते रोगिणी के नेत्रों में आँसू भर आये।
राजा-बाबू ने बड़ी नम्रता से कहा---
"माँजी, आप तबीयत को भारी न कीजिए। मैं आपकी सेवा के लिए तैयार हूँ। आप निस्सङ्कोच आज्ञा कीजिये; पर पहले रोग का हाल तो कहिए।"
"डाक्टर साहब, रोग का हाल कुछ नहीं। समय पूरा हो