घोड़ा हाथ से गया; शोक इसका है कि तू उसे खोकर जीता क्यों लौटा; क्या तेरे शरीर में बुन्देलों का रक्त नहीं है? घोड़ा न मिलता न सही; किन्तु तुझे दिखा देना चाहिए था कि एक बुँदेला-बालक से उसका घोड़ा छीन लेना हँसी नहीं है।"
यह कहकर उसने अपने पच्चीस योद्धाओं को तैयार होने की आज्ञा दी, स्वयं अस्त्र धारण किये और योद्धाओं के साथ वली-बहादुरखाँ के निवास स्थान पर जा पहुँची। खाँसाहब उसी घोड़े पर सवार होकर दरबार चले गये थे। सारन्धा दरबार की तरफ़ चली, और एक क्षण में किसी वेगवती नदी के सदृश बादशाही दरबार के सामने जा पहुँची। यह कैफियत देखते ही दरबार में हलचल मच गई। अधिकारी-वर्ग इधर-उधर से आकर जमा हो गये। आलमगीर भी सहन से निकल आये! लोग अपनी-अपनी तलवार सँभालने लगे और चारों तरफ शोर मच गया। कितने ही नेत्रों ने इसी दरबार में अमरसिंह की तलवार की चमक देखी थी। उन्हें वही घटना फिर याद आ गई।
सारन्धा ने उच्च स्वर से कहा--"खाँसाहब! बड़ी लज्जा की बात है। कि आपने वह वीरता जो, चम्बल के तट पर दिखानी चाहिए थी, आज एक अबोध बालक के सम्मुख दिखाई है। क्या यह उचित था कि आप उससे घोड़ा छीन लेते?"
वली-बहादुरखाँ की आँखों से अग्नि-ज्वाला निकल रही थी। वे कड़ी आवाज़ से बोले--"किसी गैर को क्या मजाज़ है कि मेरी चीज अपने काम में लाये?"