एक ओर मुसलमान सेनाए पैर जमाये खड़ी रहती थीं, दूसरी ओर बलवान् राजा अपने निर्बल भाइयों का गला घोटने पर तत्पर रहते थे। अनिरुद्धसिंह के पास सवारों और पियादों का एक छोटा-सा, मगर सजीव, दल था। इससे वह अपने कुल और मर्यादा की रक्षा किया करता था। उसे कभी चैन से बैठना नसीब न होता था। तीन वर्ष पहले उसका विवाह शीलता- देवी से हुआ; मगर अनिरुद्ध बिहार के दिन और विलास की रातें पहाड़ों में काटता था और शीतला उसकी जान की खैर मनाने में। वह कितनी बार पति से अनुरोध कर चुकी थी, कितनी बार उसके पैरों पर गिरकर रोई थी, कि तुम मेरी आँखों से दूर न हो, मुझे हरिद्वार ले चलो मुझे तुम्हार साथ वन-वास अच्छा है, यह वियोग अब नहीं सहा जाता। उसने प्यार से कहा, जिद से कहा, विनय की; मगर अनिरुद्ध बुन्देला था। शीतला अपने किसी हथियार से उसे परास्त न कर सकी।
( २ )
अँधेरी रात थी। सारी दुनिया सोती थी; मगर तारे आकाश में भागते थे। शीतलादेवी पलङ्ग पर पड़ी करवटें बदल रही थी ओर उसकी ननद सारन्धा फर्श पर बैठी हुई मधुर स्वर से गाती थी-
बिन रघुबीर कटत नहीं रैन।
शीतला ने कहा-जी न जलाओ। क्या तुम्हें भी नींद नहीं आती?
सारन्धा-तुम्हें लोरी सुना रही हूँ।
शीतला-मेरी आँखों से तो नींद लोप हो गई।