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गल्प-समुच्चय


गया है, नहीं तेरे राग में इतनी व्यथा, इतना विषाद, इतना रुदन कहाँ से आता! कुँअर के हृदय के टुकड़े हुए जाते थे, एक-एक स्वर तीर की भाँति दिल को छेदे डालता था। वहाँ बैठे न रह सके। उठकर एक आत्म-विस्मृत की दशा में दौड़े हुए झोंपड़े में गये, वहाँ से फिर वृक्ष के नीचे आए। उस पक्षी को कैसे पाएँ। कहीं दिखाई नहीं देता।

पक्षी का गाना बन्द हुआ, तो कुँअर को नींद आ गई। उन्हें स्वप्न में ऐसा जान पड़ा कि वही पक्षी उनके समीप आया। कुँअर ने ध्यान से देखा, तो वह पक्षी न था, चन्दा थी, प्रत्यक्ष चन्दा थी।

कुँअर ने पूछा—चन्दा यह पक्षी यहाँ कहाँ?

चन्दा ने कहा—मैं ही तो वह पक्षी हूँ।

कुँअर—तुम पक्षी हो! क्या तुम्हीं गा रही थीं?

चन्दा—हाँ प्रियतम, मैं ही गा रही थी। इसी तरह रोते एक युग बीत गया।

कुँअर—तुम्हारा घोंसला कहाँ है?

चन्दा—उसी झोंपड़े में, जहाँ तुम्हारी खाट थी। उसी खाट के बान से मैंने अपना घोंसला बनाया है।

कुँअर—और तुम्हारा जोड़ा कहाँ है?

चन्दा—मैं अकेली हूँ। चन्दा को अपने प्रियतम के स्मरण करने में, उसके लिए रोने में, जो सुख है वह जोड़े में नहीं, मैं इसी तरह अकेली रहूँगी और अकेली मरूँगी।

कुँअर—मैं क्या पक्षी नहीं हो सकता?