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कामना-तरू


दम न था, सारी देह भूख-प्यास और थकन से शिथिल हो रही थी। पर, वह उस वृक्ष पर चढ़ गया, इतनी फुर्ती से चढ़ा कि बन्दर भी न चढ़ता। सबसे ऊँची फुनगी पर बैठकर उसने चारों ओर गर्व-पूर्ण दृष्टि डाली। यही उसकी कामनाओं का स्वर्ग था। सारा दृश्य चंदामय हो रहा था। दूर की नीली पर्वत-श्रेणियों पर चन्दा बैठी गा रही थी, आकाश में तैरनेवाली लालिमा-मयी नौकाओं पर चन्दा ही उड़ी जाती थी। सूर्य की श्वेत-पीत प्रकाश की रेखाओं पर चन्दा ही बैठी हँस रही थी। कुँअर के मन में आया, पक्षी होता तो इन्हीं डालियों पर बैठा हुआ जीवन के दिन पूरे करता।

जब अँधेरा हो गया, तो कुँअर नीचे उतरा और उसी वृक्ष के नीचे थोड़ी-सी भूमि झाड़कर, पतियों को शय्या बनाई और लेटा। यही उसके जीवन का स्वर्ण-स्वप्न था, आह यही वैराग्य! अब वह इस वृक्ष की शरण छोड़कर कहीं न जायगा। दिल्ली के तख्त के लिए भी वह इस आश्रम को न छोड़ेगा।

( ६ )

उसी स्निग्ध अमल चाँदनी में सहसा एक पक्षी आकर उस वृक्ष पर बैठा और दर्द में डूबे हुए स्वरों में गाने लगा। ऐसा जान पड़ा, मानो वह वृक्ष सिर धुन रहा है। वह नीरव रात्रि उस वेदना-मय संगीत से हिल उठी, कुँअर का हृदय इस तरह ऐंठने लगा, मानो वह फट जायगा। उस स्वर में करुणा और वियोग के तीर-से भरे हुए थे। आह! पक्षी, तेरा जोड़ा भी अवश्य बिछुड़