सियों की बालोचित सरलता, यह रमणियों की संकोच-मय चपलता, ये सभी बातें उनके लिये नई थीं; पर इन सबों से बढ़कर जो वस्तु उनको आकर्षित करती थी, वह जागीरदार की युवती कन्या चन्दा थी।
चन्दा घर का सारा काम-काज आप ही करती थी। उसको माता की गोद में खेलना नसीब ही न हुआ था। पिता की सेवा ही में रत रहती थी। उसका विवाह इसी साल होनेवाला था, कि इसी बीच मे कुँअरजी ने आकर उसके जीवन में नवीन भावनाओं और नवीन आशाओं को अंकुरित कर दिया। उसने अपने पति का जो चित्र मन में खींच रक्खा था, वहो मानों रूप धारण करके उमके सम्मुख आ गया। कुँअर की आदर्श रमणी भी चन्दा ही के रूप में अवतरित हो गई; लेकिन कुँअर समझते थे, मेरे ऐसे भाग्य कहाँ? चन्दा भी समझती थी, कहाँ यह और कहाँ मैं!
(२)
दोपहर का समय था और जेठ का महीना। खपरैल का घर भट्ठी की भाँति तपने लगा। ख़स की टट्टियों और तहखानों में रहनेवाले राजकुमार का चित्त गरमी से इतना बेचैन हुआ, कि वह बाहर निकल आये और सामने के बाग़ में जाकर एक घने वृक्ष के छाँह में बैठ गये। सहसा उन्होंने देखा-चन्दा नदी से जल की
गागर लिये चली आ रही है। नीचे जलती हुई रेत थी, ऊपर जलता हुआ सूर्य। लू से देह झुलसी जाती थी। कदाचित् इस समय प्यास से तड़पते हुए आदमी की भी नदी तक जाने का