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शतरंज के खिलाड़ी


दौलत लखनऊ में खिंची आती थी, और वह वेश्याओं में, भाँड़ों में, ओर विलासिता के अन्य अङ्गों को पूर्ति में उड़ जाती थी। अँगरेज़-कम्पनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता था। कमली दिन-दिन भीगकर भारी होती जाती थी। देश में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी न वसूल होता था। रेजीडेंट बार-बार चेतावनी देता था; पर यहाँ तो लोग विलासिता के नशे में चूर थे; किसी के कानों पर जूं न रेंगती थी।

खैर, मीरसाहब के दीवानखाने में शतरंज होते कई महीने गुज़र गये। नये-नये नक्शे हल किये जाते, नये-नये किले बनाये जाते, नित्य नई व्यूह-रचना होती, कभी-कभी खेलते-खेलते झौड़ हो जाती, तू-तू मैं-मैं तक की नौबत आ जाती; पर शीघ्र ही दोनों मित्रों में मेल हो जाता। कभी -कभी ऐसा भी होता, कि बाज़ी उठा दी जाती, मिरजा जी रूठकर अपने घर चले आते। मीर- साहब अपने घर में जा बैठते; पर रात-भर को निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शान्त हो जाता था। प्रातःकाल दोनों मित्र दीवानखाने में आ पहुँचते थे।

एक दिन दोनों मित्र बैठे हुए शतरंज के दल-दल में ग़ोते खा रहे थे कि इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफ़सर मीरसाहब का नाम पूछता हुआ आ पहुँचा! मीरसाहब के होश उड़ गये! यह क्या बला सिर पर आई! यह तलबी किस लिए हुई है! अब खैरियत नहीं नज़र आती ! घर के दरवाजे बन्द कर लिये। नौकरों से बोले-कह दो, घर में नहीं हैं।